जायन्ते च भ्रियन्ते च जलेप्वेव जलौकसः। न च गच्छअन्ति ते स्वर्गमविशुदहमनोमलाः ।।
चित्तमंतर्गतम दुष्टं तीर्थस्नानंच शुध्यति । शतशोअपि जलैधौतम सुराभाण्डमिवाशुची ।।
चित्तमंतर्गतम दुष्टं तीर्थस्नानंच शुध्यति । शतशोअपि जलैधौतम सुराभाण्डमिवाशुची ।।
सार : अगत्स्य ने लोपामुद्रा से कहा – निष्पापे ! मैं मनासतीर्थो का वर्णन करता हूँ, सुनो । इन तीर्थों मैं स्नान करके मनुष्य परम गति को प्राप्त होता है । सत्य, क्षमा, इन्द्रिसंयम, सब प्राणियों के प्रति दया, सरलता, दान, मन का दमन, संतोष, ब्रह्मचर्य, प्रियाभाषण, ज्ञान, धृति और तपस्या – ये प्रत्येक एक एक तीर्थ है । इनमें ब्रहमचर्य परम तीर्थ है । मन की परम विशुद्धि तीर्थों का भी तीर्थ है । जल में डुबकी मारने का नाम ही स्नान नहीं है; जिसने इंद्री संयम रूप स्नान किया है, वही स्नान है और जिसका चित्त शुद्ध हो गया है, वही स्नान है ।
‘जो लोभी है, चुगलखोर हैं, निर्दय हैं, दम्भी हैं और विषयों मैं फंसा है, वह सारे तीर्थों में भली भांति स्नान कर लेने पर भी पापी और मलिन ही है । शरीर का मैल उतारने से ही मनुष्य निर्मल नहीं होता; मन के मैल को पर ही भीतर से सुनिर्मल होता है । जलजंतु जल में ही पैदा होते हैं और जल में ही मरते हैं, परन्तु वे स्वर्ग में नहीं जाते; क्योंकि उनका मन का मैल नहीं धुलता । विषयों में अत्यंत राग ही मन का मैल है और विषयों से वैराग्य को ही निर्मलता कहते हैं । चित्त अंतर की वस्तु है, उसके दूषित रहने पर केवल तीर्थ स्नान से शुद्धि नहीं होती । शराब के भाण्ड को चाहे 100 बार जल से धोया जाये, वह अपवित्र ही रहता है; वैसे ही जब तक मन का भाव शुद्ध नहीं है, तब तक उसके लिए दान, यज्ञ, ताप, शौच, तीर्थसेवन और स्वाध्याय – सभी अतीर्थ है । जिसकी इन्द्रियां संयम मैं हैं, वह मनुष्य जहाँ रहता है, वही उसके लिए कुरुक्षेत्र, नैमिषारण्य और पुष्करादि तीर्थ विध्यमान हैं । ध्यान से विशुद्ध हुए, रागद्वेषरुपी मल का नाश करने वाले ज्ञान जल में जो स्नान करता है, वाही परम गति को प्राप्त होता है ।
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